हुआ ये कि मेरी दोस्त की उसके पति के साथ कुछ दिनों से दिक्कतें चल रही थीं। उसका पति कुछ ज्यादा ही शांत जैसा हो गया है, और उसकी सुस्ती इतनी बढ़ गई है कि लगता ही नहीं वह फिर से उठ खड़ा हो पाएगा।
हालांकि मैं उसके पति से कुछ साल पहले मिल चुका हूँ, सही समय याद नहीं। जब मिला था, तो वह बहुत हंसमुख और जिज्ञासु व्यक्ति था। लेकिन जब उसने आज मुझे उसकी एक वीडियो दिखाई, तो वह मुझे बिल्कुल अलग लगा।
उस रात बारिश थमी नहीं। और न ही मेरी बेचैनी।
मैंने खिड़की से बाहर देखा—गुलमोहर का पेड़ भीगी टहनियों के साथ थरथरा रहा था, जैसे उसकी भी कोई याद उसमें कांप रही हो। मैंने उसे एक मैसेज किया, बस इतना—
"तुम थक सकती हो। पर टूटना मत। अगर कुछ कह सको, तो कह देना। मैं सुनने के लिए यहीं हूँ।"
कुछ देर बाद उसका जवाब आया—
"कभी-कभी कहना भी डराता है। क्योंकि जब दिल टूटता है, आवाज़ भी कांपती है।"
अगली सुबह मैं फिर उनके घर गया।
वो इस बार मुझे देखकर मुस्कुराई नहीं। आँखें सूनी थीं, बाल खुले हुए, और होंठ—बिल्कुल वैसे जैसे कोई ग़ज़ल बीच में छूट गई हो।
"वो..." उसने कहा, "रात को बहुत रोया। पर मुझसे कुछ नहीं कहा।"
"क्या तुम अब भी उससे उतना ही प्यार करती हो?" मैंने पूछ लिया, हिम्मत करके।
उसने मेरी ओर देखा, और इतना कहा,
"प्यार कम नहीं होता। बस कभी-कभी वो जिस्म नहीं, साया बन जाता है।"
मैं कुछ पल उसके सामने खामोश बैठा रहा। फिर कहा,
"और अगर वो साया भी छूट जाए?"
वो काँप गई।
"तो मैं उसके साथ ही धुंध में खो जाऊंगी..."
उस वक़्त मुझे लगने लगा कि शायद मेरी मोहब्बत से बढ़कर उसकी वफ़ा है।
मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़कर कहा,
"तुम्हें टूटते देखना अब मुझसे नहीं होता। या तो उसे बचा लो... या खुद को।"
वो कुछ कहने ही वाली थी, तभी ऊपर से एक धीमी-सी आहट आई—उसका पति, पहली बार बिस्तर से उठकर सीढ़ियों से नीचे आ रहा था।
उसकी चाल धीमी थी, पर आँखों में कुछ था... जैसे भीतर से कोई लौ दोबारा जल रही हो।
वो हमारे पास आकर रुका।
मुझे देखा। फिर उसे देखा। और बहुत धीमे से कहा,
"माफ़ कर देना... मैं तुम्हें अकेले छोड़ आया था। पर अब लौट आया हूँ।"
उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे, और वो बस वहीं खड़ी रही—हिली तक नहीं।
मैंने उठकर दरवाज़े की तरफ़ रुख किया।
उसने मेरा हाथ थामा, बहुत हल्के से...
"तुम्हारे हिस्से की मोहब्बत मैंने रख ली है," उसने कहा।
"पर तुम्हारी ख़ामोशी... वो हमेशा मेरे साथ रहेगी।"
कुछ मोहब्बतें मुकम्मल नहीं होतीं।
पर वो अधूरी रहकर भी हमें पूरा कर जाती हैं।
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