सुबह थी, लेकिन दिल में रात सी बेचैनी थी।
वो सर्दी की पहली सुबह थी जब कमरे की खिड़की से बाहर सफेद चादर सी बर्फ फैली थी।
लेकिन उस सफेदी में भी मेरे अंदर कुछ राख हो रहा था।
मैंने जैसे ही फोन उठाया, आदतन उसका चैट खोला—“आर्या”।
कोई नीली टिक नहीं,
कोई "ऑनलाइन" नहीं,
कोई 'गुड मॉर्निंग' नहीं।
पहली बार ऐसा हुआ था।
दिल ने कहा—शायद सो गई होगी,
दिमाग ने कहा—कुछ ठीक नहीं।
मैंने लिखा:
"आज बर्फ गिरी है, चाय बनाई है… तुम्हारे बिना फीकी लग रही है।"
कोई जवाब नहीं।
दोपहर बीती, शाम हुई, फिर रात।
और उस रात, पहली बार मेरी नींद नहीं आई… क्यूंकि मेरी नींद की वजह ने ही जवाब देना बंद कर दिया था।
तीन दिन बीत गए।
मैं हर घंटे उसका चैट खोलता।
हर बार वहीं खालीपन, वहीं चुप्पी।
मैंने लिखा:
"आर्या, कुछ भी हो… बस एक बार बता दो कि तुम ठीक हो। नाराज़ हो, तो बोलो… पर यूँ मत जाओ।"
उसका आख़िरी मैसेज अभी भी मेरी स्क्रीन पर था:
"कभी-कभी बातों से भी मोहब्बत डर जाती है…"
मुझे लगा था, ये ठंड सिर्फ बाहर गिर रही है,
पर असल बर्फ तो भीतर जमने लगी थी।
वो सर्दी, वो पहली बर्फ, वो चाय...
सब अधूरा था।
हर चीज़ जैसे अपनी कहानी खो चुकी थी।
मैंने अपनी डायरी खोली, जिसमें मैंने उसका नाम लिखा था।
उसके नीचे एक लाइन और लिख दी:
“जिन्हें सिर्फ महसूस किया गया हो, वो जब छोड़ते हैं… तो चीख भी नहीं सुनाई देती।”
तब मुझे समझ आया—
कुछ लोग बर्फ जैसे होते हैं।
वे बहुत खूबसूरत लगते हैं,
पर जब हाथ में लेने की कोशिश करो…
तो पिघल जाते हैं।
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