कमलनाथ चारपाई पर बैठे हुए गहरी सोच में डूबे थे। घर में हलचल थी, मेहमान आने वाले थे, रानी का जन्मदिन जो था। लेकिन कमलनाथ की दुनिया उस चारपाई के दायरे से आगे नहीं बढ़ पा रही थी।
रानी उन्हें देख रही थी। उसने महसूस किया कि उसके पिता कुछ बदले-बदले से लग रहे हैं। उसने धीरे से पास जाकर कहा—
"पापा, अगर बदलाव आपको इतना कठिन लगता है, तो क्यों ना हम इसे छोटे-छोटे कदमों में करें?"
कमलनाथ मुस्कुराए, लेकिन उनकी मुस्कान में हल्का सा संकोच था। वह जानते थे कि रानी की बातें सीधी और सच्ची थीं। लेकिन क्या इतने सालों की आदतें इतनी आसानी से बदल सकती हैं?
रात को जब सारे मेहमान चले गए और घर में शांति थी, तब कमलनाथ अकेले बैठे रहे। सुधा उनके पास आई और बोली—
"क्या सोच रहे हैं?"
कमलनाथ ने लंबी सांस ली और कहा—
"रानी सच कहती है, सुधा। मैं सालों से इस चारपाई पर बैठा दुनिया देख रहा हूँ, लेकिन खुद कभी नहीं बदला। मैं हमेशा यही मानता रहा कि जिंदगी बहाव में चल रही है, फिर बदलाव क्यों लाऊं? लेकिन आज मुझे लग रहा है कि शायद यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी।"
सुधा मुस्कुराई—
"समय के साथ बदलना ज़रूरी है, कमल। वरना जीवन ठहर जाता है।"
कमलनाथ ने चारपाई को देखा, उसे छुआ और जैसे बीते सालों को महसूस किया। फिर उन्होंने एक ठहराव भरी आवाज़ में कहा—
"कल सुबह पहली चीज़, इस चारपाई को हटा देंगे।"
सुधा ने चौंककर उनकी ओर देखा।
"सच में?"
कमलनाथ मुस्कुरा दिए—
"हाँ, बदलाव की शुरुआत कहीं से तो करनी ही होगी!"
अगली सुबह, जब रानी उठी, तो उसने देखा कि आंगन में रखी पुरानी चारपाई हटाई जा रही थी। वह भागकर पिता के पास आई और उनकी आँखों में देखा।
कमलनाथ ने उसकी ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा—
"आज पहला कदम उठा लिया, बेटा। आगे की राह तुम्हारे साथ तय करेंगे!"
रानी की आँखें चमक उठीं।
कमलनाथ अकेले नहीं थे, अब उनके साथ उनकी बेटी और एक नया सफर था—बदलाव की ओर!
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