Chapter 1: पहली मुलाकात
“कभी-कभी कुछ अजनबी इतनी जल्दी अपने लगने लगते हैं कि हमें खुद पर शक होने लगता है…”
वो दिसंबर की एक आम शाम थी, लेकिन मेरे भीतर कुछ खास चल रहा था। बाहर सर्दी का आलम था और अंदर दिल में एक अजीब-सी बेचैनी। मैं लैपटॉप के सामने बैठा था, अनजाने में किसी लेख पर क्लिक किया और वहाँ नीचे एक कॉमेंट पढ़ा—जिसमें किसी ने लिखा था,
"कभी किसी को बिना देखे उससे जुड़ जाना, सबसे बड़ी हिम्मत होती है।"
उस कॉमेंट का नाम था—आर्या।
बस... वहीं से सब शुरू हुआ।
नाम जाना-पहचाना नहीं था, लेकिन उस एक लाइन ने मेरे भीतर कोई पुरानी तार छेड़ दी थी। मैं जवाब देने से खुद को रोक नहीं पाया,
"और कभी-कभी सबसे बड़ी बेवकूफ़ी भी…"
कुछ ही मिनटों में जवाब आया,
"बेवकूफ़ियाँ ही तो दिल से जुड़ी होती हैं। दिमाग का क्या, वो हर चीज़ में लॉजिक ढूंढता है।"
मैं मुस्कुरा दिया।
पहली बार था जब किसी अजनबी की बात ने इतनी गर्माहट दी थी इस ठंडी सर्दी में।
हमारी बातों ने सिलसिला पकड़ा—धीरे-धीरे, लेकिन बहुत गहराई से। दिन नहीं, हम रातों में ज़्यादा जुड़े। शायद इसलिए क्योंकि रातें भी थोड़ी सच्ची होती हैं।
वो किताबें पढ़ती थी, गुलज़ार को पसंद करती थी, और बर्फबारी की दीवानी थी।
मैं उसे बताता था कि मैं भी अकेलेपन से बातें करता हूँ, पुराने गाने सुनता हूँ और चुपचाप खिड़की के पास बैठा चाय पीता हूँ।
हम अलग-अलग शहरों से थे—फासले असली थे, लेकिन जज़्बात? वो तो हर मैसेज में झलकते थे।
एक रात उसने लिखा,
"तुम्हें कभी बर्फ देखनी है तो मेरे शहर आना। यहाँ की सर्दियाँ बहुत बोलती हैं।"
मैंने जवाब दिया,
"और तुम्हारा साथ हो तो शायद मैं बर्फ से डरना छोड़ दूँ…"
वो हँसी।
और उस हँसी में मैं खो गया।
हमने तय किया था—ना कोई फोटो शेयर करेंगे, ना ही कॉल करेंगे।
बस शब्दों में एक-दूसरे को जानेंगे।
ये अजीब-सी डील थी, लेकिन उसमें एक मासूमियत थी।
एक भरोसा।
मुझे नहीं पता था कि मैं किसी अनजानी आवाज़ के बिना, किसी अनदेखे चेहरे के पीछे इतना कुछ महसूस कर सकता हूँ।
पर शायद यही तो मोहब्बत होती है—कभी-कभी बिना किसी शक्ल के भी दिल भर जाता है।
उस रात मैंने अपनी डायरी में पहली बार उसका नाम लिखा—आर्या
और नीचे लिखा:
"शायद ये सर्दी कुछ नया सिखाएगी…"