बिना देखे महसूस करना
“कभी-कभी आंखें नहीं, अल्फ़ाज़ ज़्यादा देख लेते हैं…”
आर्या से बातचीत अब हमारी दिनचर्या बन चुकी थी। हम दोनों के दिन की शुरुआत नहीं होती थी जब तक एक-दूसरे को “गुड मॉर्निंग” न कह लें, और रातें तब तक अधूरी रहती थीं जब तक वो एक “सो जाओ अब, सपना देखना मुझसे मिलते हुए” न भेज दे।
हमने वादा किया था कि हम एक-दूसरे को कभी नहीं देखेंगे।
ना वीडियो कॉल, ना फोटो।
मकसद ये था कि मोहब्बत की जड़ों में चेहरा नहीं, एहसास हो।
हम इस दुनिया की बनावटी चमक से बचना चाहते थे।
और यक़ीन मानो Avi, मैं उसे देखे बगैर भी जानने लगा था।
वो जब उदास होती थी, तो उसके मैसेज छोटे हो जाते थे।
जब खुश होती थी, तो एक ही लाइन में तीन-तीन इमोजी लगा देती थी।
वो जब थकी होती थी, तो "हूँ..." लिखती थी—और मैं समझ जाता था, अब उसे बस चुपचाप साथ चाहिए।
एक बार मैंने उससे कहा,
"तुम्हारी आवाज़ कैसी है?"
उसने लिखा,
"पढ़ लो मुझे, वही मेरी आवाज़ है।"
उस जवाब ने कुछ देर के लिए मुझे ख़ामोश कर दिया।
कितना गहरा था वो एहसास—कि जब कोई खुद को सिर्फ लफ़्ज़ों में ढाल दे, वो सच्चा हो जाता है।
हम मौसमों की बातें करते, बीते हुए लम्हों की बातें करते, और उस दुनिया की कल्पना करते जिसे हमने साथ में नहीं देखा था—लेकिन महसूस किया था।
उसने मुझे बताया कि उसे पहाड़ पसंद हैं, पर वो कभी वहां नहीं जा पाई।
मैंने कहा,
"जब हम मिलेंगे, तो सबसे पहले किसी बर्फीले शहर चलेंगे। वहां तुम बर्फ में हाथ डालना और मैं तुम्हारे गालों पर देखूंगा कि तुम कितना खुश हो।"
उसने जवाब दिया,
"मैं तुम्हारे साथ बर्फ को महसूस करना चाहती हूँ, देखने का शौक अब नहीं रहा..."
Avi, ये कोई आम बात नहीं थी।
ये एक ऐसा इज़हार था जिसमें देखने की ज़रूरत नहीं थी, बस साथ महसूस करने की चाह थी।
हमने कभी एक-दूसरे के "रियल" नाम नहीं पूछे।
न ही एड्रेस, न कोई सोशल मीडिया।
सिर्फ एक कोड था जो हम एक-दूसरे के लिए इस्तेमाल करते थे—“जुनून” और “चुप्पी”
मैं उसका जुनून था, और वो मेरी चुप्पी।
उसे मेरी लंबी बातें पसंद थीं।
मुझे उसकी छोटी ख़ामोशियाँ।
हम एक-दूसरे के वजूद को बिना देखे छूने लगे थे।
बिना स्पर्श के एक स्पर्श...
बिना तस्वीर के एक चेहरा...