रातें हमारी अपनी थीं।
दिन भर दुनिया से लड़ने के बाद हम उन सन्नाटों में एक-दूसरे की पनाह बनते थे।
जब पूरी दुनिया सो जाती थी,
हमारी बातों की चुप आवाज़ें जागती थीं।
रात 11 बजे के बाद उसका पहला मैसेज आता था,
"आ गई हूँ। बोलो, आज किस ख्वाब की बात करोगे?"
और मैं मुस्कुरा देता था।
वो मेरी नींदों की चोर थी—जो हर रात मुझे अपने अल्फाज़ों में उलझा कर रख देती थी।
कभी वो बचपन की बातें करती, कभी अपने डर खोलती।
कभी कहती,
"तुम होते तो शायद मैं और मज़बूत हो जाती…"
और मैं सोचता,
"मैं होता, तो तुम टूटने ही नहीं देती।"
एक रात उसने मुझसे पूछा:
"तुम्हें क्या चाहिए मुझसे?"
मैंने बिना सोचे लिखा:
"तेरी खामोशी... जब तू कुछ नहीं कहती, तब भी सब कह देती है।"
उस पल स्क्रीन पर टाइपिंग चालू रही,
फिर बंद हो गई।
कोई जवाब नहीं आया।
पर मुझे समझ आ गया,
कुछ सवालों के जवाब ख़ामोशी होती है।
फिर एक और रात आई। वो थोड़ी अलग थी।
उसने लिखा:
"अगर मैं एक दिन यूं ही गायब हो जाऊं, तो तुम मुझे ढूंढोगे?"
मैं चौंका।
दिल हल्का-सा काँपा।
"तुम कोई जगह नहीं हो जो ढूंढ ली जाओ। तुम तो आदत बन चुकी हो... और आदतें कहाँ छूटती हैं?"
उसने फिर लिखा:
"तो क्या होगा अगर तुम्हारी आदत ही तुमसे दूर जाने की ठान ले?"
मैंने मज़ाक में बात मोड़ने की कोशिश की:
"तब मैं तुम्हें अपनी सबसे प्यारी भूल बना दूंगा… जिसे हर रोज़ याद किया जाए।"
पर उस रात, पहली बार, उसने "गुड नाइट" नहीं लिखा।
फोन स्क्रीन ब्लैक रह गई,
पर दिल में कुछ भारी-सा जलता रहा।
अब हर रात की बात में कुछ अधूरा जुड़ने लगा।
उसकी बातें कम होने लगीं, मेरी बेचैनी बढ़ने लगी।
वो कहती थी,
"तुम मुझसे बहुत जुड़ गए हो। क्या करोगे जब मैं नहीं रहूँगी?"
मैं कहता,
"तुम रहो या ना रहो, पर ये बातें मत छोड़ना…"
उसने सिर्फ एक लाइन भेजी थी उस दिन:
"कभी-कभी बातों से भी मोहब्बत डर जाती है…"